
आठवें दिन की मानव धर्म विषयक व्याख्यानमाला में साहित्यकार माधव कृष्ण ने कहा कि, जीवन का लक्ष्य निर्धारित न होने से मनुष्य भ्रमित रहता है। लक्ष्य निर्धारित हो जाने पर एकाग्रचित्त होकर मनुष्य उस मार्ग पर चलता रहता है। पवहारी बाबा कहते थे कि साधना और सिद्धि एक ही हैं। सिद्धि केवल साधना का चरम उत्कर्ष है। साधना करते समय अनेक दुख, शोक, भ्रम और चिंताएं हो सकती हैं। आधुनिक भाषा में ऐसी अवस्था में एक मेंटर की आवश्यकता पड़ती है जो हमें रुकने न दे। अध्यात्म की भाषा में इसी मेंटर को बुद्ध या धर्म या संघ कहते हैं।

उनके साथ रहने पर यह समझ में आता है कि यदि हमें छ: शत्रु मिले हैं तो छ: संपत्तियां भी हैं: शम, दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा, समाधान। बिना चिंता, विलाप करते हुए अपने महान लक्ष्य की तरफ बढ़ते हुए आई बाधाओं और दुखों को बिना प्रतिकार किए हुए सहन कर लेना ही तितिक्षा है। गंगा बाबा गंवई अंदाज में कहते थे कि हिंदी वर्णमाला में तीन स हैं, उसका अर्थ है कि मनुष्य में सहने की क्षमता किसी और गुण से तीन गुना अधिक होना चाहिए। लेकिन यह तभी संभव है जब मनुष्य को अपने गुरु या मेंटर के वाक्यों और निर्देशों में श्रद्धा हो। श्रद्धा का अर्थ है गुरु और शास्त्र के उपदेशों को सत्य बुद्धि से धारण करना। सत्य बुद्धि का अर्थ है शास्त्र वचन, गुरु वचन और आत्मानुभूति की एकरूपता।
बापू के ने ज्ञान दीप के विषय में व्याख्यान देते हुए मानस के विभिन्न प्रकरणों को उठाया और कहा कि, सात्त्विक श्रद्धा रूपी गाय से परमधर्ममय दूध निकलता है। परोपकार ही परम धर्म है। निष्काम भाव ही अग्नि है जिसमें सभी बंधन जल जाते हैं। इस अग्नि पर दूध को ओटना है। अर्थात परहित करने के बाद उसे जताना नहीं, बल्कि भूल जाना है। इसी को शिवभाव से जीवसेवा कहते हैं। मानस में नारद जी ने कामदेव को बिना क्रोध किए पराजित कर दिया लेकिन वह इसे निष्काम भाव से नहीं कर सके। वह भगवान शंकर और श्रीहरि से इसके विषय में बताकर आत्मप्रशंसा के सूक्ष्म अहंकार में फंस गए।
तभी माया के आवरण ने उनको घेरा और स्वयंवर में जाने के लिए उन्होंने भगवान श्रीहरि से उनकी सुंदरता मांग ली। यहां वह कामना के मामले में रावण के समकक्ष हैं लेकिन केवल एक अंतर है कि उन्होंने अपनी कामना पूर्ति के लिए भी भगवान को चुना, किसी सांसारिक व्यक्ति को नहीं। परमात्मा अहंकार ही खाता है, इसलिए निष्काम रहें और सेवा करते रहें। उन्होंने कहा कि आचार्य रामानंद की परम्परा में कहा जाता है कि, गोस्वामी तुलसीदास ने केवल आठ घंटे में श्रीरामचरितमानस की रचना की। यह भी माना जाता है कि श्रीमद्भगवद्गीता के अतिरिक्त अन्य सभी शास्त्रों में थोड़ी बहुत मिलावट हो चुकी है लेकिन उनका भी प्रेम पूर्वक पाठ करने से गुरु की कृपा से सत्य अर्थ मिल जाता हैं और उद्धार हो जाता है।
आठवें दिन के कार्यक्रम का समापन गुरु अर्चना, ईश्वर विनय, प्रसाद वितरण और रात्रिकालीन भोजन भंडारे से हुआ।